सई कोरान्ने-खांडेकर का परिवार खाने का शौकीन है और सब दुनिया के अलग-अलग कोनों में रह रहे हैं. सबको एक साथ लाने के लिए उन्होंने 2012 में WhatsApp ग्रुप बनाया था जिसमें खाने की रेसिपी और किचन टिप्स व ट्रिक्स शेयर की जाती थी, बाद में उन्हीं रेसिपी को "द गोरे फ़ेमिली कुकबुक" में शामिल किया गया.
किताब की शुरुआत को याद करते हुए सई कहती हैं, “दादी-नानी, ताई-चाची और घर-बगीचे और खाने के बारे में ढेर सारी यादें ताज़ा हो गईं". इस फ़ैमिली कुकबुक की बात पक्की होते ही दुनिया-भर से रिश्तेदार WhatsApp ग्रुप में पारंपरिक रेसिपी और उनसे जुड़ी यादें भेजने लगे. उस ग्रुप में शुरु में परिवार के 50 सदस्य थे और अब उसमें 100 से भी ज़्यादा सदस्य हो गए हैं. घर के बुजुर्ग जिनमें से कुछ की उम्र लगभग 70 साल है और जिन्होंने कभी भी WhatsApp का इस्तेमाल नहीं किया था, वे भी WhatsApp पर अपनी रेसिपी भेजने लगे.
सई बताती हैं, "मुझे नहीं लगता कि हम ईमेल या फ़ोन कॉल्स के ज़रिये ऐसा कर पाते. अगर मैंने सबको कॉल किया होता तो मुझे केवल उनकी कहानी पता चलती, लेकिन WhatsApp से यह पूरे परिवार की कहानी बन जाती है, इसमें तथ्यों को लेकर बातचीत की जा सकती है. रेसिपी को लेकर सारी बातचीत WhatsApp पर ही की गई. कोई कहता 'ओह, मुझे याद है कि उसने मसाला डाला था,' और कोई दूसरा कहता, 'नहीं, इस रेसिपी में प्याज़ को स्लाइस नहीं बल्कि डाइस किया जाता है'".
सई, जो फ़ूड राइटर और कंसल्टेंट हैं, ने सभी रेसिपी को इकट्ठा किया, खुद बनाकर देखा और फिर किताब में लिखा. 2014 की दिवाली में सई की दादी और अन्य बुजुर्गों ने परिवार को "द गोरे फ़ेमिली कुकबुक" भेंट की. गर्भवती होने की वजह से सई बहुप्रतीक्षित उद्घाटन में शामिल नहीं हो पाईं.
सई कहती हैं, “मुझे रोना आ रहा था. प्रेज़ेंटेशन के बाद परिवार में सबने मुझसे बात की और मुझे बधाई दी. वे सभी किताब देखकर हैरान थे! हम सभी कुकबुक देखकर खाना बनाते हैं. उसमें अचार की रेसिपी भी है, उन पन्नों को हर गर्मियों में देखा जाता है”.
सई के लिए WhatsApp कुकबुक केवल परिवार की सभी रेसिपी को एक साथ लिखना ही नहीं है बल्कि यह भारत के इतिहास को बेहतर ढंग से समझने का तरीका भी है. उनके परिवार में भोजन का लेनदेन जारी है और वे दूसरी किताब लिखने के बारे में सोच रही हैं जिसमें जान-पहचान की और मज़ेदार खाने की आइटम से संबंधित और निजी किस्से और परिवार के लम्हें शामिल होंगे.